शब्द
मानव सभ्यता के बीज
गले से उत्पन्न ध्वनि और सांकेतिक आकृतियों के मिलन से शुरू हुई यात्रा ने शब्दों को जन्म दिया और शब्दों के समूह ने भाषा को।
उन्हीं असंख्य शब्दों और भाषा से ये दुनिया चल रही है। शब्द न हों, तो न खबरें हों, न किताबें, और न ही शिक्षा का कोई नामलेवा। न ही इंटरनेट, न मोबाइल, न कोई सोशल मीडिया। न वेद पाठ, न उपनिषदों की गहराई, न बाइबल की शिक्षाएं, न कुरान की आयतें, न जिन सूत्रों की तार्किकता, न धम्मपद की शांति, और न ही गुरु ग्रंथ साहिब की भक्ति। न कोई नियम-कानून, न संविधान जो न्याय का आधार बने, न पासपोर्ट-वीजा जो हमें परिभाषित करें। न देशों के नाम, न कोई पहचान, न ही कोई सीमा रेखा। न देश-परदेश, न बाजारों की रौनक, न नौकरियों का जाल, न धंधे की भागदौड़। न किस्से-कहानियां, न किसी नाटक की रचना न ही मनोरंजन के साधन। न ज्ञान की रोशनी, न विज्ञान की खोज। न भगवान, न महात्मा, न तीर्थंकर, न ईश्वर, न अल्लाह। न मंदिरों में आरती, न मस्जिदों की अजान, न चर्चों की प्रार्थनाएं। न पंडित, न पादरी, न कोई मौलवी, न कोई साधु-संत, न फ़कीर। न गीतों की मधुरता, न सरगम की लय। न रुपये-पैसे का चक्कर, न बैंकों की कागजी दुनिया। न गणित की संरचना, न सच और न ही झूठी बातें। न कोई चरित्रवान, न चरित्रहीन। न अमीर, न ही कोई गरीब। न रिश्तों के नाम, न रस्मों-रिवाजों के बंधन।
कुछ भी तो नहीं होता। सब कुछ—हर विचार, हर सपना, हर उपलब्धि—शब्दों की ही देन है।
शब्द न हों, भाषा न हो, तो मानवजाति का जीवन वैसा ही होता जैसा पक्षियों, प्राणियों, या जंगली जीवों का। सोचिए, साढ़े सोलह करोड़ साल तक डायनासोरों ने पृथ्वी पर राज किया, फिर भी कोई नहीं जानता कि उनमें से कौन महान था, कौन दुष्ट। क्यों? क्योंकि उनके पास शब्द नहीं थे, न ही भाषा की शक्ति, जो उनकी कहानियां, उनके संघर्ष, या उनकी विजय को अमर कर सके। उनकी दुनिया में न इतिहास था, न भविष्य की योजना। केवल वर्तमान था—भोजन, शिकार, और अस्तित्व।
आधुनिक मानव, जो मात्र चार-पांच लाख साल पहले इस धरती पर विकसित हुआ, ने शब्दों को और शब्दों से बुनकर लिखित भाषा को पिछले कुछ दस हजार सालों में गढ़ा और देखिए, इस छोटे से कालखंड में क्या-क्या रच डाला! पत्थर के औजारों से लेकर अंतरिक्ष की यात्रा तक, खेतों से लेकर महानगरों तक, गुफा की दीवारों पर चित्रों से लेकर डिजिटल दुनिया तक—यह सब शब्दों की बदौलत। शब्दों ने हमें विचारों को इकट्ठा करने से लेकर उन्हें साझा करने और उन पर आगे बढ़ने की शक्ति दी।
शब्द ही गति हैं, शब्द ही प्रगति हैं।
भाषा का जैविक और सामाजिक मूल
मानव मस्तिष्क, जो पिछले दो लाख सालों में तेजी से विकसित हुआ, ने हमें यह अनूठी क्षमता दी है। वैज्ञानिक बताते हैं कि FOXP2 नामक जीन, जिसे “भाषा का जीन” (language gene) भी कहते हैं, ने हमारे बोलने और समझने की शक्ति को बढ़ाया। हमारे मस्तिष्क के हिस्से (Enlarged Neocortex) में ब्रोका और वर्निक क्षेत्र (areas like Broca's and Wernicke's) शब्दों को वाक्यों में पिरोने और उनके अर्थ को समझने में सक्षम हैं। यह क्षमता हमें जटिल विचारों को व्यक्त करने देती है। अन्य प्राणी, जैसे चिंपैंजी, कुछ संकेत सीख सकते हैं, लेकिन वे भविष्य की योजनाएं या अमूर्त (abstract) विचार नहीं बना सकते।
भाषा का विकास सामाजिक आवश्यकताओं से भी हुआ। जब हमारे पूर्वज जंगलों से निकलकर समूहों में रहने लगे, उन्हें शिकार, खेती, और सामाजिक रिश्तों के लिए जटिल संवाद की जरूरत पड़ी। इशारों से शुरू होकर, धीरे-धीरे शब्दों ने जन्म लिया। ये शब्द केवल संवाद नहीं थे; ये संस्कृति का आधार बने। एक पीढ़ी ने अगली पीढ़ी को न केवल औजार, बल्कि कहानियां, नियम और सपने सौंपे। यही संचयी संस्कृति (cumulative culture) है, जो हमें बाकी प्राणियों से अलग करती है।
शब्दों की रचनात्मक शक्ति
शब्दों ने हमें वह दुनिया दी, जो हम आज देखते हैं। सोचिए, 'स्वतंत्रता' या 'न्याय' जैसे शब्द न हों, तो क्या हम इन विचारों के लिए लड़ पाते? 'प्रेम' या 'दुख' जैसे शब्द न हों, तो क्या हम अपनी भावनाओं को व्यक्त कर पाते? 'गणित' और 'विज्ञान' जैसे शब्द न हों, तो क्या हम चांद पर पहुंच पाते? हर मंदिर, हर मस्जिद, हर किताब, हर गीत—सब शब्दों से जन्मे हैं। यह शब्द ही हैं, जो एक विचार को मूर्त रूप देते हैं।
संत कबीरदास जी ने कहा था:
“ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोए।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।।”
कबीर के ये शब्द हमें याद दिलाते हैं कि शब्द केवल जानकारी नहीं, बल्कि शांति, प्रेरणा, और परिवर्तन का स्रोत हैं। एक शब्द किसी का हृदय तोड़ सकता है, तो दूसरा उसे जोड़ सकता है। एक शब्द युद्ध शुरू कर सकता है, तो दूसरा शांति ला सकता है। शब्दों में वह शक्ति है, जो हमें जोड़ती है, हमें ऊपर उठाती है, और हमें मानव बनाती है।
शब्दों के बिना
कल्पना करें, एक ऐसी दुनिया जहां शब्द न हों। न कोई नाम, न कोई कहानी। न कोई इतिहास, न कोई भविष्य का सपना। हम पक्षियों की तरह गीत गाते, लेकिन उनमें कोई कविता न होती। हम शिकार करते, लेकिन कोई हार-जीत की कहानी नहीं गढ़ते। हम प्रेम करते, लेकिन उसे शब्दों में न पिरो पाते। ऐसी दुनिया में न कोई रामायण होती, न कोई न्यूटन का सिद्धांत, न गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा के संदेश और न ही ओशो के प्रवचन। हम डायनासोरों की तरह जीते, वर्तमान युग के शक्तिशाली प्राणी की तरह, लेकिन गुमनाम।
शब्द मानव सभ्यता के प्राण हैं। वे केवल संवाद का साधन नहीं, बल्कि वह शक्ति हैं जो हमें जानवरों से अलग करती है। शब्दों ने हमें इतिहास दिया, संस्कृति दी, और प्रगति का रास्ता दिखाया। शब्द विचारों को अमर करते हैं, सपनों को हकीकत बनाते हैं और हमें एक-दूसरे से जोड़े रखते हैं। चाहे वह वेदों की ऋचाएं हों, कुरान की आयतें, या आधुनिक विज्ञान की खोजें या आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का यह युग—सब शब्दों से शुरू होते हैं। शब्दों के बिना संपूर्ण मानवजाति एक खाली कैनवास होती, जिसमें न रंग होते, न रूप।
देखिए चारों तरफ, सबकुछ शब्दों के कारण ही तो है। शब्द नहीं होते तो शरीर में आत्म तो होती मगर परमात्मा की खोज में कोई नहीं जाता।
इस लेख को लिखने के पीछे अनेक कारण है, आध्यात्मिक भी और गहन सोच से उपजे विचारों की अभिव्यक्ति भी, मगर हम सभी के लिए एक साधारण सा संदेश भी है कि हम अगर शब्दों का सही उपयोग नहीं करेंगे तो ये तो निश्चित है कि डायनासोर भले ही बिना शब्दों के 16.5 करोड़ सालों तक इस पृथ्वी पर निवास करके मिट गए मगर मानवजाती अगले 16.5 लाख साल तो छोड़िए आने वाले 16.5 हजार सालों तक भी टिक पाएगी या नहीं ये एक चिंता का विषय होगा।
एक रहस्य
नफ़रत भरे शब्दों से और समाज में विष घोलने हेतु कभी किसी ग्रन्थ की रचना नहीं हुई। प्रेम, करुणा, शांति, ज्ञान-विज्ञान, आदि-इत्यादि हर वो बात जो मानवता को गति दे, मानवता का कल्याण करे, वो सारी बातें सदियों तक मानव समाज का हिस्सा बन कर रही है और रहेगी। दूसरी तरफ हर वो विचार, जो कि मानवता के लिए खतरा बन जाए, घातक सिद्ध हो, उस विचार का संपूर्ण रूप से विनाश करके ही मानवजाति को गति मिली है, प्रगति के पथ पर आगे बढ़ी है। और इसी संदेश को आगे देने हेतु नफ़रत के विनाश की कहानियों की जरूरत हमेशा ही इस मानवजाति को रही है।
अनादिकाल तक मानवजाति के पूर्वज जंगल में भटकते हुए प्राणियों की तरह ही रहे, फिर समय के साथ आधुनिक मानवजाति ने किसी ना किसी प्रकार अपनी-अपनी भावनाओं और विचारों का आदान-प्रदान करके छोटे-बड़े समूह बनाए, समूहों को मिलाकर कबीले बनाए, कबीलों से आदिवासी समाज और फिर गांव, कस्बे और शहरो का निर्माण संभव हुआ। और आज के आधुनिक दौर में पूरा विश्व ही एक सामूहिक समाज अर्थात् 'वसुधैव कुटुंबकम' को सार्थक करने हेतु तेज गति से बढ़ रहा है और उसी दिशा में हर विघ्न, हर बाधा को कुचलता हुआ बढ़ता ही जाएगा।
यही मानवजाति की गति-प्रगति से जुड़ा हुआ सत्य है। ये भी सत्य है कि समय का पहिया मानवजाति को फिर से भिन्न-भिन्न विभिन्नताओं से बने हुए कबीलों की तरफ लेकर नहीं जायेगा, विभिन्नताओं में बांटने वाली हर विचारधारा का अंत निश्चित है।
शब्दों से बनी भाषाओं में भी वो ही भाषाएं आने वाले समय में आम बोलचाल में बनी रहेगी जो संपूर्ण समाज को प्रगति के मार्ग पर लेकर जाने में सहायक हो, नए आविष्कारों को जन्म देने में सहायक हो, एक-दूसरे की भावनाओं को अभिव्यक्त करने में और समझने में सहायक हो। झूठ और नफ़रत भरे विचार और उन विचारों की अभिव्यक्ति करने वाले लहराते खेतों में उन विषैले पौधों की तरह रहेंगे जिन पर किसान की नज़र पड़ते ही वो विचलित हो जाता है, हल्के क्रोध से भर जाता है और अंततः उन्हें उखाड़ कर फेंकने की बाद ही शांत और चिंतामुक्त होता है।
शब्दों का और शब्दों से पिरोई भाषा का सही उपयोग ही हमे कल्याण और प्रगति के मार्ग पर लेकर जाएगा
आप सभी का कल्याण हो।
एवमस्तु।



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