' प्यासे गांव '
शहरों की बारिश भी अब पराई सी लगती है
बूंदों का घूंघट ओढ़ मानो ये ताने बरसाती है
सूखे तालाब सुखी नदियों को देख हृदय से उठती पुकार है
प्यास अब उस गांव की तपती माटी की अपनी सी लगती है।
छोटे-बड़े हर गांव तक है बिखराएं
इस लज्जा विहीन ने जहरीले जाल
आंगन-आंगन जाकर है तरसाती
खाली कर गांवों को अपना घर है बसाती
शहरों की ये मदमस्त लहराती जवानी
सावन में ये सौतन सोलह श्रृंगार भी तो है सजाती।
पुराने गीतों की तरह सुनसान वो गांव की गलियां
अमावस की काली रातों में पुकारती वो विरान हवेलियां
अपनों से कुछ कहने की कोशिश करती वो खामोशियां
भूली बिसरी यादों के जैसी है उन गावों की वो तन्हाईयां।
शहरों की बारिश भी अब पराई सी लगती है
शहरों की बारिश भी अब पराई सी लगती है
बूंदों का घूंघट ओढ़ मानो ये ताने बरसाती है
शहरों की बारिश भी अब पराई सी लगती है।



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