सांप्रदायिक राजनीति और धर्म व संस्कृति का विनाश
सांप्रदायिक राजनीति और धर्म व संस्कृति का विनाश
पहले… एक बहुत ही भयानक सपने के बारे में बताता हूं। गर्मियों के मौसम में, कूलर की ठंडी हवाओं से लिपटे हुए, दोपहर की मीठी नींद के बिच मे…अचानक से जब बिजली चली गई, तब इस बहुत ही भयानक सपने ने प्रवेश किया:
तबाही! हर तरफ तबाही! ऐसा लगा जैसे कि किसी पुरानी दुनिया से पिछले जन्मों की यादें, बिना दस्तक दिए जबरन ही मेरे भीतर प्रवेश कर रही है, क्यू कि जो उस भयावह सपने में हो रहा था वैसा पहले भी हुआ होगा, अनेक सभ्यताओ और संस्कृतियो का पहले भी विनाश हुआ है, किसी ना किसी कारण से नष्ट हुई है, तो यही लगा कि मैं किसी पिछले जन्म में ऐसी ही एक विध्वंश के कगार पर खड़ी सभ्यता का हिस्सा हूं, साक्षी हूं, उस तबाही का…! मगर ये क्या! ये तो भारत ही भारत दिख रहा था, भविष्य का भारत, भारत के ही लोग, आधुनिक भारत के जैसा! और उस भयानक सपने में, उस दौर में, जब हम सब की प्यारी भारतीय संस्कृति का नाश हो चुका था तब मैं साक्षी बन कर खड़ा हूं और देख रहा हूं कि उस सर्वनाश की दास्तां लिखी जा रही है और उसके पहले ही अध्याय में कुछ-कुछ इस प्रकार की बातें लिखी जा रही थी…
पूरे भारत में सारे ही राजनैतिक मंचो से अलग-अलग धर्म की बात और अलग-अलग धार्मिक मंचो से राजनीति की बात होती गई और भारत की प्रेम व भाईचारे की सनातन संस्कृति बरबादियों के रास्ते पर बढ़ती ही गई। चोर, डाकू, फरेबी, बहुरूपियों ने और हिंसक प्रवृत्ति के लोगों ने धर्म की खाले ओढ़ कर अधर्म की बातें की और उस दौर के सामान्य नागरिकों ने बिना किसी प्रतिरोध के सुनी। सुनते ही गए, सुनते ही गए…
ये भी लिखा जा रहा था कि - उस दौर मे भारत के नागरिकों में ना तो राजनीति की कोई समझ बाकी रह गई थी और ना ही उनमें अपने धर्म और संस्कृति को समझने की क्षमता बाकी थी। हालांकि धर्म व संस्कृति को समझने के लिए शास्त्रों, ग्रंथो, पवित्र किताबों आदि की कोई भी कमी नहीं थी। और राजनीति का सार समझने के लिए एक सशक्त संविधान था, कानून की अनगिनत किताबे भी थी, जिम्मेदारियां निभाने के लिए दिशानिर्देश भी भरपूर थे, विस्तृत - विशाल - गंभीर इतिहास था। मगर उस दौर के लोगों ने ज्ञान अर्जित करने की क्षमता ही खो दी थी। उस दौर के लोगों को सस्ती नारेबाजियां, फूहड़ किस्म की बाजारू बातें, सस्ता दिखावा, भद्दे मजाक, शहीदों के नाम पर स्वार्थ की राजनीति, स्वार्थ ना साध सके तो शहीदों व अन्य महापुरुषों का भी अपमान, बेवजह की बहस बाजियां, बुद्धिजीवियों का और उनके विचारों का मजाक, इतिहास को ठुकराना, ऐतिहासिक तथ्यों को नकारना, महापुरुषों पर लांछन लगाना, उन्हें गालियां देना, और जब-तब उनका अनादर करना, आदि इत्यादि प्रकार की नौटंकीयां हो रही थी और पता नही क्यू उस दौर के लोगो को ये सब होते हुए देखना ठीक भी लगने लगा था। हिंसक घटनाओं के जिक्र से इनके मुंह में लार टपकने लगती, क्रूर व हिंसक बाते सुनकर उन्हें दीवानों जैसी खुशी महसूस होने लग रही थी। उन्हे लगने लगा था कि दूसरे लोगो पर क्रूरता और हिंसा के रास्ते ही ये निर्वाण को उपलब्ध हो जाएंगे।
और इन्ही कारणों की वजह से धर्म और संस्कृति का नामो निशान तक मिट चुका था, हर तरफ बस हिंसा, हिंसा और हिंसा…
उफ्फ! बहुत बुरा सपना था, नींद में भी पसीने से पूरा बनियान गीला हो गया। अचानक आंख खुली तो थोड़ा वक्त लगा फिर से होश आने में…।
मगर फिर थोड़ी देर बाद सोच कि क्या कुछ इसी तरह से लिखी जाएगी वो दास्तां, अगर ऐसा कुछ हुआ तो…! चूंकि फिलहाल तो भारत का मस्तिष्क अभी तक पूरी तरह से बर्बाद नही हुआ है! मगर…मगर…भविष्य में (ईश्वर ना करे कि हो), मगर हो गया तो… क्या होगी वो दास्तां, किस प्रकार से लिखी जाएगी?
चलिए छोड़िए, कुछ और बातें करते है।
ये तो शायद हम जानते ही है कि सांप्रदायिक ताकतें और सांप्रदायिक राजनीति वैसे भी 'धर्म' का नाश ही करती है। मगर इससे भी बड़ी चिंता का विषय ये है कि जब कभी भी इनका अंत होगा तब वो अंत उन सारे 'ब्रांडेड धर्मों' को एक अलग तरह से क्षति पहुंचाएगा। जिनका नाम लेकर, एक तरह की भड़कीली मार्केटिंग करके, ये सांप्रदायिक राजनीति का भद्दा और खूनी खेल खेला जाता है। क्यू कि सांप्रदायिक राजनीति 'धर्म के नाम पर' होने के बावजूद वास्तविकता में तो 'धर्म' के विपरित ही है।
धर्म तो सिखाता है और बतलाता है - काम, क्रोध, मोह, माया से त्याग का मार्ग, अध्यात्म का मार्ग, प्रेम का मार्ग। मगर सांप्रदायिक ताकतें और सांप्रदायिक राजनीति काम, क्रोध, मोह, माया का उपयोग करती है, सिखाती है और उपयोग करने के लिए भी आपसे कहती है। बलात्कार, लूटपाट, पत्थरबाजी, मासूम लोगो की हत्याएं, घरों में और दुकानों में आग लगाना, आदि इत्यादि तरह के कुकर्म करने के लिए ऐसा कोई भी धर्म नही है जो ये सब सिखाता हो या करने के लिए कहता हो। एक भी नही। ये सब उस भद्दी राजनैतिक सोच का ही हिस्सा है। खैर, आगे…
ये भी एक सत्य है, चाहे कोई माने या न माने कि - लोगों के मन में मानवीय मूल्यों की हत्या हो जाने के बाद, उनके बंजर, उझड़े मन में धार्मिक संस्कारो के, धार्मिक चेतना के फूल नहीं महक सकते। हां, दिखावा जरूर किया जा सकता है, और इस दिखावे का भरपूर उपयोग भी सांप्रदायिक ताकतें करती रहती है। थोड़ा बहुत दिखावा तो वैसे भी हर कोई करता है, मगर सांप्रदायिक लोगों को, सांप्रदायिक राजनैतिक पार्टियों को और इनसे जुड़ी अन्य संस्थाओं को इस दिखावे की खास जरूरत होती है, अतः उनका दिखावा अन्य लोगो के दिखावे से अधिक होता है। साबुन, क्रीम, शैंपू के विज्ञापनों की तरह भड़कीला, चमकदार और आकर्षित करने वाला होता है।
भारत के महान लेखक मुंशी प्रेमचंद जी ने 1934 में एक लेख लिखा था - 'साम्प्रदायिकता और संस्कृति' उसमे उन्होंने ये बात कही थी कि -
"साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है।"
सोच कर देखिए कि क्या एक दूसरे के प्रति नफरती भाषणबाजियों से, या दंगों से, या अन्य किसी भी प्रकार की सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने वाले दुष्कर्मों से - क्या हमारा धर्म निखरता है? क्या हमारी संस्कृति का श्रृंगार होता है? या क्या किसी गरीब के पेट को इज्जत-ईमान की दो वक्त की रोटी भी मिलती है? ऐसा कुछ भी तो नहीं होता। है ना!
हां! लोगो को एक हद तक बेवकूफ जरूर बनाया जा सकता है, (और इतिहास गवाह है कि पहले भी बनाया गया है), ये कह कर कि; देखो इन दूसरे धर्म के लोगो की वजह से तुम्हे काम नही मिल रहा है, इनके कारण तुम्हे ये ये तकलीफे उठानी पड़ रही है, ये तुम्हारे दुश्मन है, तुम्हारी धार्मिक आस्थाओं के दुश्मन है, तुम्हारे परिवार के दुश्मन है, ये पापी है…! और ये सारी बातें ईश्वर-अल्लाह, भगवान-खुदा का नाम लेकर चिल्ला-चिल्ला कर सौ तरह के झूठे और गुमराह करने वाले बहाने जोड़ कर कही जाती है। उस तरह से कि आदमी आदमी में नफरत का जहर उतर सके, उन्हें एक दूसरे के खिलाफ़ जहरीला और हिंसक हथियार बनाया जा सके।
मगर कब तक? कब तक ये सामान्य नागरिक मुर्ख बनना स्वीकार करते रहेंगे?
एक दिन तो ये सारे मूर्ख-गरीब-सामान्य से नागरिक इतना तो देखेंगे ही कि उनके दिल में नफ़रत तो हद से अधिक भरी जा चुकी है, मगर उस नफ़रत से उनका घर नहीं चलता, उनके हाथो को काम नहीं मिलता, उस नफरत से उनके बूढ़े मां-बाप का अस्पताल में इलाज नहीं होता, उस नफरत से बच्चो की स्कूल फीस नहीं भरती, उस नफरत से पत्नी के लिए कपड़े नही खरीद सकते, उस नफरत से इस दुनिया के बाजार में घर का कुछ भी सामान नहीं मिलता।
तब वो उस नफ़रत का, उस घृणा का क्या करेंगे?
मेरा ये विचार है कि धर्म के नाम पर बांटी गई घृणा उनकी अपनी ही दिखावटी आस्थाओं का और दिखावटी धर्म का नाश करती हुई नजर आएगी। दिखावटी? जी, दिखावटी। क्यू कि वास्तव में तो 'धर्म' की हानी उसी दिन हो गई थी जब उनके मन में घृणा ने घर बना लिया था।
थोड़ा समझ लेते है इस बात को…
मीराबाई के मधुर गीतों को, उनकी भक्ति को, उनके निस्वार्थ प्रेम के बारे में तो आप सब ने सुना ही होगा। और ये भी आप जानते हो कि मीराबाई के मन में यदि किसी के लिए भी घृणा होती तो वे श्री कृष्ण से वैसा निस्वार्थ प्रेम नहीं कर पाती जिसके आगे बड़े-बड़े धर्मग्रंथों के ज्ञाता भी आदर-सम्मान सहित झुके हुए से नज़र आते है।
अतः जिस किसी के भी मन में अपने 'धर्म' के लिए, अपने ईश्वर के लिए सच्चा प्रेम है, वह मन किसी से नफरत कर ही नहीं सकता, उस मन में घृणा के लिए स्थान ही नही रह पाता। शायद यही कारण है कि 'जहर' पीकर भी जो मन कड़वा तक नही हुआ उसी मन में प्रेम के पुष्प खिले और महके, और ऐसे महके कि पूरे विश्व में उस अद्भुत - अनमोल - निस्वार्थ प्रेम की खुश्बू फैलती ही गई और वो प्रेम स्वतः ही अमर हो गया।
सोच कर देखिए कि यदि आपका मन घृणा से भरा हुआ है तो उस घृणा से क्या आप अपने इष्ट को भोग चढ़ा सकते हो? उस घृणा से अपने ईश्वर या अल्लाह को कुछ भी अर्पण कर सकते हो, उनकी पूजा कर सकते हो? वो घृणा क्या आपको आध्यात्मिक ज्ञान दे सकती है? नही, नही दे सकती। और यही सत्य है, आपके भीतर 'धर्म' के या तो होने का या न होने का।
और अगर कोई शंका हो कि आप धर्म के रास्ते पर हो या नहीं - तो इसका उत्तर आपको और कही से नही बल्कि अपने ही मन - मस्तिष्क से मिलेगा। आपके अपने विचारों से मिलेगा, आपकी अपनी भावनाओं से मिलेगा।
स्वयं से सच बोलना तो शायद आप जानते ही होंगे! है ना! तो आज स्वयं की ही परीक्षा करके देख लीजिए; कि आप कौनसे मार्ग पर हो और किस दिशा में अपनी भावनाओं को और अपने विचारो को आगे बढ़ा रहे हो।
लिखी हुई किसी बात से आपके मन को ठेस पहुंची हो तो क्षमा चाहूंगा। ईश्वर हम सब को सुबुद्धि दे और सत्कर्म करने की शक्ति दे।
धन्यवाद
गिरीश जैन



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