धर्म, राजधर्म और राजनीति



…………………………………………………………………………………

भारत के प्राचीन ज्ञान सागर से अंजली भर कुछ ज्ञान की बूंदों को विचारों की स्याही में उड़ेल कर ये लेख लिखा है। उम्मीद करता हूं कि विचारों के एक अच्छे ग्राहक की तरह आप इसे पढ़े व परखे।

इस लेख में : 

- कुछ विचार
- महाभारत की कुछ एक घटानाओं पर टीका-टिप्पणी 
- और श्री कृष्ण का संदेश समझने की कोशिश

…………………………………………………………………………………


नमस्कार,

आजकल धर्म के नाम पर राजनीति का एक 'फैशन' चल रहा है, सांप्रदायिक राजनीति का। और 'फैशन' इसलिए क्यूं कि नेताओं के भाषणों द्वारा, न्यूज मीडिया, सोशल मीडिया द्वारा लोगों को जबरदस्ती ये एहसास कराया जा रहा है कि - देखो फलां-फलां नेता या पार्टी को वोट नहीं करोंगे तो तुम्हारे धर्म और धार्मिक आस्था पर संकट आ जाएगा। ये मार्केटिंग ठीक उसी तरह से हो रही है जैसे कि बाजार में उपस्थित किसी ब्रांड-प्रोडक्ट की ठीक से बिकने की उम्मीद ना तो दूसरे सारे ब्रांडस-प्रोडक्टस की बुराई करने और लोगों की मानसिकता के साथ खेलने के लिए सेल्स और मार्केटिंग टीम एक रणनीति तैयार करती है। वैसे तो ये फॉर्मूला काफी पुराना है, मगर समय-समय पर लालची, कपटी, स्वार्थी राजनीतिज्ञों द्वारा राजनैतिक फायदे और उनकी विफलताओं को ढांकने के लिए, धर्म के नाम पर - एक आक्रामक 'ट्रेंड' चलाया जाता है, अनेक माध्यमों के द्वारा। झूठी खबरे, गोशिप, झूठे दावे, झूठे प्रमाण, झूठे विचारों की अभिव्यक्ति, आदि-इत्यादि तरीकों द्वारा, कुल मिलाकर येन-केन-प्रकारेण मिथ्यवाद का एक जाल बुना जाता है, जो कि होता आया है, इस तरह के मामलों में। अंग्रेजी भाषा में इस तरह के पूरे प्रकरण को - जिसमे आम लोगों की धारणा और विचारों को किसी भी खास राजनैतिक, सामाजिक मुद्दे के पक्ष में 'तैयार' कराया जाता है - उसे 'Propaganda' (प्रोपेगंडा) के अंतर्गत 'Manufacturing Consent' (मैन्यूफैक्चरिंग कंसेंट) के नाम जाना जाता है। साम - दाम - दण्ड - भेद जहां विफल हो जाए वहां पर 'मैन्यूफैक्चरिंग कंसेंट' की कुनीति व कुरीतियाँ काम आती है।

दुख इस बात का है कि सांप्रदायिक राजनीति की मार्केटिंग वास्तविक जीवन में लोगों के मन में नफ़रत का एक तूफान जैसा कुछ पैदा करती हैं, और वो नफ़रत अनगिनत तरीकों से हिंसक रूप भी धारण कर सकती है। ये नफ़रत सामाजिक सौहार्द को नष्ट करती है, मानवता के मूल्यों का नाश करती है और आने वाली पीढियों तक को मानसिक तौर पर बीमार भी कर सकती हैं। इस तरह की मार्केटिंग का सबसे भयंकर परिणाम ये भी होता है कि इसके कुप्रभाव से ग्रसित लोगों को यह एहसास भी नहीं हो पाता कि वो एक प्रकार से मानसिक विकृति के शिकार हो चुके हैं।

मगर सांप्रदायिक राजनीति के खिलाड़ी, राजनेता, अगर सफल हो जाए तो वोट पाकर और कुछ पद-आसन हासिल करके इस तरह की मार्केटिंग का सिर्फ मीठा फल ही खाते है। खुद की चालाकी पर मन ही मन मुस्कुराते हुए, सरकारी ऐशो-आराम पाकर, पीढियों तक पारिवारिक 'खुशहाली' का पूरा ध्यान रखने के लिए साधन करते रहते हैं। (बाकी हज़ारों सालों से चले आ रहे धर्म और संस्कृति, जो कि चुनाव से पहले खतरे में थे, वो उनके नेता बनते ही सुरक्षित हो जाते हैं - है ना!)

• तो फिर उन लालची, कपटी, स्वार्थी राजनेताओं व राजनीतिज्ञों का वास्तविक धर्म क्या हैं? समाज को बांटकर और समाज में भेदभाव का जहर फैला कर वो कौनसे धर्म का पालन कर रहे हैं?

• और वास्तविकता में एक समाज के लिए 'धर्म-संकट' की स्थिति कब उत्पन्न होती है? एक समाज के लिए क्या है 'धर्म'?


आइए, साथ में समझने की कोशिश करते है।

पहली बात: मेरे विचार-विश्लेषण से जनकल्याण के लिए बनी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सांप्रदायिक राजनीति की उपस्थिति का अर्थ ठीक वैसा ही है जैसे कि शीतल, निर्मल जलधारा के ऊपर तैरता हुआ कोई दूषित पदार्थ। उदाहरण के लिए - जैसे कि पानी के ऊपर तैरता हुआ कच्चा तेल। जिसके कारण वो पानी ही दोषपूर्ण हो जाता है, और उसमे पनपने वाले व आश्रित जीवों के लिए भी वो घातक हो जाता है। और जब तक उस दूषित कच्चे तेल को हटाया नहीं जाता तब तक वो पानी दोषयुक्त ही रहता है।


कुछ बाते:

भारतवर्ष के पौराणिक ग्रंथों में महाभारत का नाम सदैव ही उच्च स्थान पर रहेगा। इसी काव्य ग्रंथ में लिखित एक बहुचर्चित, और सदियों से हमारे मन - विचार - भावनाओं को असमंजस के भंवर में ढकेलती एक घटना से कुछ समझते है।

द्रौपदी का अपमान व चीरहरण : यह एक ऐसी असाधारण घटना है जिससे हम सब परिचित है। मगर ये शर्मनाक घटना क्यूं घटित हुई? क्या कारण था कि इतने महान शूरवीर पांडव अपनी वीरता उन कुछ क्षणों के लिए भूल गए और सब कुछ खोकर, भुलाकर, बस चुपचाप बैठे ही रहे?


हस्तिनापुर की उस राजसभा में जब राजनीति को जुआ बनाकर खेला जा रहा था तब वहां मौजूद हर कोई अपने 'निजी-राजधर्म' से बंधा हुआ था। कौरव भी और पांडव भी। उस सभा में कोई भी ’धर्म’ के साथ नही था, सब एक अधर्म का साथ निभा रहे थे। जिसे सहूलियत के लिए, परिस्थिति के अनुरूप और अपस्थित लोगों के पद-सम्मान के कारण 'राजधर्म' का नाम दे दिया गया। अगर वैसी ही घटना आम लोगों के बीच घटित होती तो हो सकता था कि वो ही हस्तिनापुर की राजसभा उन आम लोगों को दोषी, पापी, अधर्मी मानकर सजा सुनातीं या उन्हे देश निकाला घोषित करती। मगर चुकीं उस राजसभा में स्वयं हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट्र, आदरणीय गणमान्य ऋषि-मुनि, भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, दानवीर कर्ण, बुद्धिमान विदुर और अन्य सभी जो दर्शक बने हुए बैठे थे - और वो उस समय के गणमान्य ‘बड़े लोग’ थे, अत: उनकी लाचारी के बारे में इतिहास ने ये कहा है कि वो किसी ना किसी प्रकार का 'राजधर्म' निभा रहे थे या उससे बंधे हुए थे। मगर 'धर्म' के साथ, 'धर्म' के पक्ष में उस राजनैतिक सभा में कोई भी नही था। 'धर्म' की अनुपस्थिति और सिर्फ दूषित राजनैतिक अधर्म का उपस्थित होना - यही कारण था कि द्रौपदी को उस अमानवीय करतूत का, उन शर्मनाक घटना का शिकार होना पड़ा।

उस समय के जितने भी लिखित ग्रंथ, शास्त्र, धर्म-शास्त्र, नीति-शास्त्र आदि-इत्यादि में समाहित जो भी, जितना भी ज्ञान था, लगभग उन सब ही के ज्ञाता उस राजसभा में उपस्थित थे। मगर फिर भी द्रौपदी का भरी राजसभा में अपमान हुआ और चीरहरण जैसी शर्मनाक घटना घटित हुई।

अतः हम यह मान कर चलते है कि उस सभा में जो 'धर्म' उपस्थित नही था वो धर्म ही वास्तविकता में 'धर्म' है। और द्रौपदी का अपमान व चीरहरण उन चंद क्षणों में जन्मी मानव समाज के लिए एक वास्तविक धर्म-संकट की घड़ी थी।

और 'धर्म'! 'धर्म' का कर्तव्य निभाया श्री कृष्ण ने। श्री कृष्ण की कृपा से द्रौपदी की लाज की रक्षा 'शुद्ध धर्म' की उपस्थिति का सूचक है। श्री कृष्ण धर्म स्वरूप है, धर्म के साक्षी है, धर्म के पक्षधर है, धर्म योगी है। उनके कर्म ही शुद्ध धर्म का विस्तार स्वरूप है। दूषित-राजनीति, निजी-राजधर्म तथा शुद्ध धर्म में उतना ही अंतर है जितना कि उस अधर्मी, अनैतिक हस्तिनापुर की सभा में और श्री कृष्ण के बीच में है।


चीरहरण की इस घटना के दोषी पांडव भी उतने ही थे जीतने कि कौरव। सोचिए - जिन्हे धर्मराज युधिष्ठिर के नाम से जाना जाता था, वो तो राजनीति का जुआ खेल रहे थे, वो स्वयं 'धर्म' नही निभा पाए और सब कुछ हार बैठे। बलशाली गदाधारी भीम की सौ हाथियों जितनी शक्ति उनके बाजुओं से मानो विलुप्त ही हो गई थी, क्यूं कि उनका 'धर्म' और बल राजनीति के जुए में उलझ कर अपना कर्तव्य और अपनी क्षमता गवां बैठा था। अर्जुन का गांडीव भी अपनी क्षमता नहीं दिखा पाया और वो कुशल हाथ उस धनुष की प्रत्यंचा भी नही खींच पाए क्यों कि महान धनुर्धर के हाथ दूषित-राजनीति के अधर्म से बंधे हुए थे।


इस ग्रंथ के रचियता ने बड़े की कुशल तरीके से पढ़ने और पढ़कर समझने वालों को एक अनमोल शिक्षा दी है - मानव जाति की बुद्धि और समझ के बारे में। कि कोई भी व्यक्ति 'बनावटी बंधनों' के जाल में उलझ कर - सब कुछ जानते हुए, समझते हुए, शक्ति होते हुए भी क्यों व किस प्रकार लाचार हो जाता है। राजनीति और ताकत के खेल को जुए का रूप देकर हमे यह शिक्षा दी है कि शुद्ध मानवता रूपी धर्म और राजनीति के 'आदर्श' कितने अलग है, और परिस्थिति आने पर कितने विपरित हो सकते है, विपरित दिख सकते हैं और फलस्वरूप विपरीत परिणाम के कारक भी होते है। दूषित-राजनीति विकट परिस्थितियों में बनावटी 'राजधर्म' को निभाने का स्वांग भी रच सकती है, यह एक हकीकत है। मगर 'धर्म' के कर्तव्य को बनावटी बंधनों से मुक्त व्यक्ति ही निभा सकता है, ये भी एक हकीकत है।


…और अंततः परिणाम स्वरूप युद्ध।

महाभारत का युद्ध और श्री कृष्ण का उस युद्ध में शामिल नहीं होना भी राजनीति, राजधर्म तथा 'धर्म' के अलगाव का सूचक है। अर्जुन के सारथी के तौर पर वो उस युद्ध भूमि में सिर्फ दूषित-राजनीति और अधर्म के महाविनाशकारी खेल को उसकी चरम सीमा तक देखने के साक्षी है। श्री कृष्ण के लीए उस युद्ध का उद्देश्य समाज में 'धर्म' की आवश्यकता को सार्थक करना और 'धर्म' की स्थापना करवाना था ना कि पांडवों को उनका राजपाठ दिलवाना। क्यों कि हालात ही ऐसे हो चुके थे कि दूषित-राजनीति और अधर्म के समर्थकों का सर्वनाश ही एकमात्र विकल्प शेष रह गया था कि फिर से उस समाज में 'धर्म' की स्थापना संभव हो सके। पाप और अधर्म का घड़ा हस्तिनापुर की राजनीति में अपनी क्षमता से ज्यादा भर गया था, परिणामस्वरूप अगर युद्ध नहीं होता तो आम लोगों के बीच 'धर्म' का महत्त्व व उपस्थिति भी समाप्त हो सकती थी।

महाभारत का युद्ध इतिहास में धर्मयुद्ध के नाम से जाना गया है। इसलिए नहीं कि आम मान्यता के अनुसार ये युद्ध 'धर्म' और अधर्म के बीच घटित हुआ था, नही! क्योंकि दोषी, अधर्मी तो दोनों ही पक्ष थे। जुए का वो शर्मनाक खेल दोनो ही पक्षों ने खेला था, अतः दोष-दंड के हकदार दोनो ही समान थे। उस जुए में सब कुछ हार जाने के बाद पांडवों ने कुछ तेरह साल का वनवास भोगा, वापस अपने होश संभालने के लिए, जो कि जरूरी था - इतनी भयंकर बर्बादी के बाद। शरीर पर साधारण सा घाव भी लग जाए तो ठीक होने में कुछ दिन लगते है, यहां तो इन पांडवों ने अपना राजपाट, धन-संपत्ति, समाज में अपनी और घर की औरत की इज्ज़त तक जुए में लूटा दी थी। मेरे विचार से वो एक ऐसे जुए में उलझ गए थे कि अगर उनके शरीर के प्राण भी उस जुए में दांव पर लगा पाने की उनमें क्षमता होती तो वो अपने प्राण भी लगा देते। खैर, बस प्राण ही सुरक्षित बचे रहे, बाकी तो वो सब कुछ ही हार गए थे।

फिर भी इस भयंकर त्रासदी के बाद उनके पास बल व थोड़ी बहुत बुद्धि शेष रह गई थी, इसीलिए उन्होंने मृत्यु को नहीं चुना होगा और वनवास में जीवन स्वीकार किया। मगर उस बल-बुद्धि को मार्गदर्शन की जरूरत थी - कुछ ठीक करने के लिए, कुछ अच्छा करने के लिए, कुछ 'धर्म' के अनुरूप व समर्थन में करने के लिए। और ये मानवीय प्रकृति है कि जो व्यक्ति सब कुछ हार चुका होता है, दुखी होता है, और स्वयं के कुकर्मों के कारण मन ही मन स्वयं से घृणा करता हो - वो व्यक्ति उस स्थिति में और कुछ नही तो एक सच्चे मित्र से मार्गदर्शन पाने का सबसे उत्तम ग्राहक होता है। इसीलिए श्री कृष्ण ने 'धर्म' के प्रयोजन को साधने के लिए पांडवों को मार्गदर्शन देना उचित समझा। एकमात्र श्री कृष्ण के लिए महाभारत का युद्ध एक 'धर्म-युद्ध' था, समाज कल्याण हेतु, शेष दोनो ही पक्षों के लिए ये सिर्फ एक युद्ध था।

और श्री कृष्ण के मार्गदर्शन के चलते उस युद्ध में उन सब लोगो का नाश हुआ जो उस राजसभा में 'राजधर्म' के बंधन के नाम पर अधर्म को अंजाम देने के दोषी थे और अधर्म के साक्षी थे, एक मूक दर्शक की तरह। ये युद्ध मानवजाति के लिए, पूरे समाज के लिए एक 'धर्म' संदेश था। पांडव दोषी थे मगर वो अधर्म के विनाश हेतु, एक दोषी की तरह, श्री कृष्ण के मार्गदर्शन और आदेशों का सिर्फ पालन कर रहे थे क्योंकि अंततोगत्वा श्री कृष्ण के लिए 'धर्म' महत्त्वपूर्ण था, 'धर्म' की स्थापना महत्त्वपूर्ण थी। अन्यथा उन राजपुरूषों के भी पिछले कुकर्मों के कारण हुई 'धर्म' की हानि एक शर्मनाक उदाहरण की भांति इतिहास के पन्नों में लिखी जाती, और वैसा उदाहरण पूरे मानव समाज के लिए 'धर्म' के पक्ष में नहीं होता। अतः गलती हो जाने पर गलती मान लेना, उसका पश्चताप करना व गलती सुधारने हेतु 'धर्म' के मार्गदर्शन में जो भी उचित हो वो ही करना सार्थक है।


सोच कर देखिए कि अगर किसी समाज के गणमान्य श्रेष्ठतम पुरुष, शास्त्रों के ज्ञाता, एक से बढ़कर एक वीर योद्धा और पूरे समाज के लिए दिशा-निर्देश तय करने वाले लोगों का समूह - एक राजघराने की स्त्री की इज्जत-आबरू की रक्षा करने में असमर्थ हो जाए और घातक भी हो जाए तो फिर आम प्रजा से क्या ही उम्मीद शेष रह जाएगी। अगर कोई समाज नारी सम्मान के महत्त्व को ही भूल जाए तो फिर उस समाज में किसी भी प्रकार के, किसी भी नाम के धर्म का होना या ना होना एक समान ही माना जाना चाहिए। किताबों, ग्रंथों, शास्त्रों में लिखा धर्म किस काम का अगर वो मानवजाति के आधे हिस्से को समाज में सम्मानजनक स्थान भी देने में सक्षम ना हो। हस्तिनापुर की उस राजसभा में एक से बढ़कर एक ज्ञानी, विद्वान, शूरवीर पुरुषों की उपस्तिथि के बीच में एक नारी का अपमान हुआ था, राजघराने की एक कुलवधु का चीरहरण हुआ था। उस घटना के होने से उस समय के उन सारे लिखित शास्त्रों, धर्मों व संस्कारों का ज्ञान व परिभाषा मानो कुछ ही क्षणों में दूषित-राजनीति से उपजी छल-कपट की एक दहकती चिता को समर्पित हो गई थी। 

अतः श्री कृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता में कहते है:

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥4-7॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥4-8॥

अर्थात: मै प्रकट होता हूं, जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब मैं आता हूं, जब-जब अधर्म बढता है तब-तब मैं आता हूं, सज्जन लोगों की रक्षा के लिए मै आता हूं, दुष्टों के विनाश करने के लिए मैं आता हूं, धर्म की स्थापना के लिए में आता हूं और युग युग में जन्म लेता हूं।


महाभारत के उस युद्ध में राजपाठ, पारिवारिक मूल्य, रिश्ते-नाते, गुरु-शिष्य परंपरा के आदर्श, आदि-इत्यादि सब क्षतिग्रस्त होते हैं, हर प्रकार के बनावटी बंधन टूट कर धराशाई हो जाते हैं। ये सर्वनाश ही दूषित-राजनीति, निजी-राजधर्म और अधर्म रूपी कुकर्मों का परीणाम था। इनके सर्वनाश के बाद शेष रहता है सिर्फ शुद्ध 'धर्म' का मार्ग।

कुछ लोग शायद इस युद्ध को मानव जाति के मन में समाहित हिंसक प्रवृत्ति तथा मानवों द्वारा घटित हिंसा की चरम अवस्था की तरह देखते है। मगर यह विचार कितना गलत है।

हम यह मानते है कि हिंसा एक पाश्विक प्रकृति है और अहिंसा एक तपस्या। मगर शुद्ध 'धर्म' की रक्षा हेतु, अंतिम उपाय के रूप में, अधर्म के विनाश हेतु किया गया युद्ध, जो कि पूरे मानव समाज के लिए कल्याणकारी हो, उस युद्ध में व्यक्तिगत तौर पर घटित होने वाली हिंसा पाश्विक नहीं मानी जाती। आत्म-रक्षा हर एक प्राणी का मौलिक अधिकार है। और पूरे मानव समाज को अगर अधर्म और उसके संभावित विनाशकारी परिणामों व कुप्रभावों से बचाना हो तब ही तो 'धर्म' युद्ध की घोषणा होती है। और ये 'धर्म' किसी भी नाम से विख्यात धर्म की रक्षा के बारे में नहीं है, ये वो 'धर्म' है जो कि सम्पूर्ण मानव समाज के लिए कल्याणकारी है। 

और भी कई विचार है जो हमारे मन में उठ सकते है और गहरे चिंतन का विषय हो सकते है, मगर फिलहाल सरल तरीके से समझने के लिए आप इसे इस तरह समझे कि - क्या विषैले भोजन को नष्ट करने से अन्न का अपमान होता है? नहीं, ज़रा सा भी नहीं। क्या किसी भी तरह की भूख को शांत करने के लिए विषैला भोजन ग्रहण किया या कराया जाना चाहिए? नही, बिल्कुल नहीं। क्या किसी के भी द्वारा विषैले भोजन के नष्ट हो जाने का शोक व्यक्त करना उचित है? नहीं।

और शायद इसीलिए श्री कृष्ण गीता के अंतिम अध्याय में कहते है:

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।18.66।।

अर्थात: सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।

…………………………………………………………………………………


अंत में यही कहना है कि;

वास्तविक जीवन में सरलता व सादगीपूर्ण जीवन के लिए हमारे लिए यही महत्वपूर्ण है कि अलग-अलग नामों से प्रचलित धर्मों को और आपकी निजी धार्मिक आस्था को राजनीति व राजनैतिक समझ से अलग ही रखना चाहिए, क्यों कि ये सब ही अलग-अलग है, इनकी प्रकृति अलग है। राजनीति सिर्फ शासन और शासक की स्वार्थ पूर्ति के लिए, परिस्थिति अनुरूप, उचित ‘राजधर्म’ को ही पहचानती है, और हर एक राजनीतिज्ञ का अपना एक निजी-राजधर्म होता है और वो राजधर्म 'धर्म' व अधर्म में भेद करना नही जानता। 'धर्म' की प्रकृति अलग है, 'धर्म' के आदर्श राजनीति और राजधर्म से भिन्न है, इनकी दिशाएं अलग है। और, क्यूं कि राजनैतिक स्वार्थ व लालसा से दूषित होने के बाद 'धर्म' व धार्मिक संस्कारों की सिर्फ हानि ही हो सकती है, इसलिए आम नागरिकों को और राजनीतिज्ञों को भी शुद्ध 'धर्म' के अनुसार धार्मिक मूल्यों की व संस्कारों की फिक्र करनी चाहिए। धार्मिक आस्था को राजनैतिक संरक्षण की विवशता की सूची में रखना पाप है। राजनीति का जुआ किसी भी प्रकार की विवशता को जन्म दे सकता है। चाहे वो राजनीतिज्ञ, राजनेता कोई भी हो, कितनी ही ताकत या क्षमता रखता हो, या किसी भी पद पर आसीन हो।

'धर्म' को पहचानिए, धर्म हर एक व्यक्ति के सद्-व्यवहार व चरित्र में है, अच्छे संस्कारों में है और सुकर्मों के द्वारा और समय पर जनकल्याण हेतु निभाए हुए कर्तव्य के कारण जीवित रहता है। 'राजनीति' और 'राजधर्म' के लिए वास्तविक 'धर्म' की शुद्धता को दूषित मत करिए। सांप्रदायिक राजनीति में अलग-अलग नामों के धर्म, भौगोलिक स्थिति व जनसमूह की आस्था के अनुसार सिर्फ एक विषय-वस्तु है। और इसीलिए कपटी राजनेताओं द्वारा उस 'वस्तु' की रक्षा करने के लिए जनसमूह को येन-केन-प्रकारेण प्रेरित किया जाता है, उकसाया जाता है। और सही मायनों में तो आक्रामक व उकसाये हुए लोगों की भीड़ 'धर्म' की रक्षा कर भी नहीं सकती, इस बात को जितना संभव हो उतनी गहराई से समझने की कोशिश करनी चाहिए।

सांप्रदायिक राजनीति करने के लिए किसी भी धर्म, जाती, समुदाय के नाम का सिर्फ प्रयोग होता है। मगर इस तरह की राजनीति करने वालों के कर्म-कुकर्म, विचार-बुद्धि तो लगभग दुर्योधन के समान ही होते है। सांप्रदायिक राजनीति में अक्सर भड़काऊ भाषणबाजी और अन्य तरीकों के सहारे किसी व्यक्ति या समुदाय को नीचा दिखाना, किसी अन्य के मान-सम्मान के साथ खिलवाड़ करना, जनसमूह के सामने स्वार्थ साधने के लिए किसी को हंसी का पात्र बनना, हिंसा को और हिंसक प्रवृत्ति को बढ़ावा देना, बुरी नियत, कुरीति और क्रूरता द्वारा स्वार्थ की पूर्ति करना, आदि-इत्यादि काम दुर्योधन के जैसी राजनैतिक समझ व उसके जैसी प्रवृत्ति वाले लोग ही कर पाने की क्षमता रखते है। और दुर्योधन अधर्म का, स्वार्थ का, अज्ञान का सूचक है, और ऐसे लोग ना तो 'धर्म' के अनुरूप कर्म कर सकते है और ना ही वो किसी भी प्रकार से 'धर्म' की रक्षा करने की क्षमता भी रखते है।


समय आने पर 'धर्म' की रक्षा के लिए एकमात्र श्री कृष्ण और उनका संदेश ही पर्याप्त थे और हैं।

|| जय श्री कृष्ण ||


…………………………………………………………………………………


कहने - लिखने को और भी कई बाते है, फिलहाल इतना ही।
किसी भी प्रकार की त्रुटि के लिए, और लेख में लिखित किसी भी बात से आपके मन को अगर ठेस पहुंची हो, तो क्षमा चाहूंगा।

धन्यवाद और शुभकामनाएं।
गिरीश जैन

…………………………………………………………………………………










Comments