मनचली पत्रकारिता | Manchali Patrakarita

25th October 2019



शहर की एक मशहूर गली है,
‘मनचली‘ वहीं तो पली बढ़ी है।

उस मोटी चमड़ी का मान ताव देख,
लोगो ने अपनी नाक भों तक सिकोडी है।
हसतें मुस्कराते रह-रहकर उसने,
कलम, कैमरा और कुर्सी संभाली है।

कोई मनचला है,
तो कोई खिलाड़ी है,
किसी ने इज्जत पहन रखी है,
तो किसी ने किसी की उतारी है।

बाबू,
ओ बाबू,
ये मोहल्ला जरा सा बदनाम है,
ये गलियां जरा सी टेढ़ी है,
तुम ओर तुम जैसे तो कभी कभार आते है,
वो पुराने बाबू तो आते जाते रहते है।

नए को कहना समझाना पड़ता है,
पुरानो से तो सुनना भी पड़ता है,
नए की इज्जत जरा सी उतारनी पड़ती है,
पुरानों को इज्जत देनी पड़ती है।

बिजनेस है, पैसा है, 
बदनाम है तो नाम है।

इन ऊंचे खंबो के सहारे,
सहारा लिए जो खड़ा है,
देखो मत तुम उस तरफ़, 
वो तो कोई एक लफंगा है।

कहानी जरा पुरानी है
स्याही नयी, कलम पुरानी है
ये प्राइम टाइम की जवानी,
'राजा', तुझपे ही तो लुटानी है।

शहर की गर्म हवाओं से,
जल ना जाए इज्जत की चमड़ी,
इसीलिए तो प्यारे हमने,
ठंडे कमरों में ये दुकान खोली है।

देनी हो जिस किसी को, 
वो मनचाही गाली ले लो,
सोने के भाव बिकती स्याही ले लो,
जितनी मर्जी वाह वाही ले लो।

लीगल है ये गोरखधंधा
मत करना कभी कोई शंका,
जादु टोना भी जो न कर पाए,
इन जलवो से तो शैतान भी घबराए।

मगर ये जलवा परमानेंट नहीं,
और हम भी कोई खैराती नहीं,
तेरे लिए तो हाज़िर हैं बाबू,
मगर तेरे लिए ही तो नहीं।

लाल फितों में गर फंसी है अर्जी,
आओ ना आओ तुम्हारी मर्ज़ी।
थोड़ा प्राइवेट सा अफेयर है बाबू,
सरकारी दफ्तर तो नहीं।

भले काम किया हो तूने कम ज्यादा
कर देंगे हम गुना या भागा।
खुश करना गारंटी हमारी,
मुस्कुराते रहना मर्ज़ी तुम्हारी।

सुनो...!
जनता के आक्रोश से
तंत्र के अन्याय से
अन्नदाताओं की हाय से
मासूम लाचार आंसुओ से…

लोकतंत्र ठिठुरने सिकुड़ने जब लग जाएगा,
भ्रष्टाचारी का बदन भी जब कंप कंपाएगा,
स्याही का रंग लाल जब होने लग जाएगा,
चुनावी मौसम जब भी गरमाएगा…

मिलने आना इस ' मनचली ' को,
केयर ऑफ ' पत्रकारिता ' को,
‘खबरों वाली गली’ में रहती है जो,
सुबह, शाम या दोपहरी को।

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