सामाजिक कट्टरता और नारी जीवन
सामाजिक कट्टरता और नारी जीवन
लेखक : गिरीश जैन
जब भी कोई व्यक्ति, परिवार, समाज, जाती, धर्म या देश कट्टरतावाद और आतंकवाद की तरफ कदम बढ़ाता है तो उसकी कीमत उनके आस-पास की औरतों को ही क्यूं चुकानी पड़ती है?
शायद उस कट्टरता को जीवित रखने के लिए? उस कट्टरता की ताकत के दिखावे के लिए? या फिर शायद उस दिखावे को जायज़ ठहराने के लिए उस समाज के पुरूषों को एक पक्का सबूत चाहिए होता है? जैसे कि बाजार से सामान खरीदने के बाद पक्का बिल लिया जाता है, सबूत के तौर पर, कि ये सामान अब उनका हो गया, कि वो अब उस सामान के मालिक हो गए। शायद ऐसी ही कुछ बात होगी!
एक सवाल है ये, मगर इसका जवाब शायद किसी के पास नही। औरतों को जिस पहेली का हिस्सा बना कर रखा हुआ है, उलझा कर रखा हुआ है, कितनी ही सदियों से, उनके पास भी तो इस पहेली का हल मौजूद नहीं है, अगर होता तो ये दुनिया थोड़ी सी अलग होती।
कुछ बातें :
पहले भारत की बात करते है, क्यों कि वो बातें जिन्हे हम जानते है, पहले उनके द्वारा समझने में थोड़ी आसानी होगी।
पुराने शास्त्रों के अनुसार नारी को घर की लक्ष्मी कहा गया है। इसलिए नहीं कि वो धन-दौलत से घर के भंडार भरेगी, बल्की इसलिए कि वो पुरूष-प्रधान पारिवारिक व सामाजिक ढांचे के अनुरूप हर पुरूष को एक 'वजह' देगी, एक 'कारण' बनेगी कि वो घर-परिवार के लिए धन-दौलत कमा कर लाए और पुरुष एक 'कर्ता' बन कर रहे। यह मेरा अपना तर्क, नीष्कर्ष है, बाक़ी शास्त्रों की बात शास्त्र जाने, आगे बढ़ते हैं।
'कारण' और 'कर्ता' :
तो औरतों को हमारे सामाजिक ढांचे ने पुरूषों को प्रोत्साहित या प्रेरित करने के लिए एक जगह दी है - 'घर की लक्ष्मी' के नाम पर। और साथ ही साथ इसके एवज में औरत का पूरा जीवन, उसकी जीवनशैली, उसकी सोचने-विचारने की क्षमता, उसके तन-मन की हर एक इच्छा को किसी गिरवी सामान के तौर रख लिया है। प्रत्यक्ष रूप से भले ही ना रखा हो, मगर अदृश्य, अप्रत्यक्ष रूप से, मानसिक तौर पर।
थोड़ी पाश्चात्य देशों की भी बात करे तो अंग्रेजी में भी तो वो एक कहावत है कि - हर सफल पुरुष के पीछे एक औरत का हाथ होता है - Behind every successful man, there is a woman. इस कहावत में भी तो औरत एक 'वजह' मात्र है, और अचंभे की बात है कि जब किसी औरत से ये कहा जाता है तो वो गर्व महसूस करती है। कितनी आसानी से वो स्वीकार कर लेती है कि वो सिर्फ एक 'वजह' है।
पुरानी पाश्चात्य सभ्यताओं की बात करे तो रोमन सभ्यता की पौराणिक कथाओं (Mythology) में भी एक देवी है - प्रोत्साहन या प्रेरित करने वाली - Muse. आजकल इस शब्द को किसी देवी के नाम से तो कोई नही जानता होगा, मगर इस शब्द का अर्थ ही उस देवी के गुण पर निर्धारित कर लिया गया है। तो म्यूज (Muse) होने का वर्तमान समय में अर्थ है कि वो म्यूज किसी के लिए एक 'मॉडल' है, प्रेरणा है - किसी मूर्ति के लिए, कलाकृति, चित्रकला के लिए, किसी कविता या गीत के लीए, कलात्मक फोटोग्राफी के लिए, आदि इत्यादि। और स्वयं को किसी अच्छे कलाकार की म्यूज कहलवाना अधिकतर सब ही लड़कियों, औरतों को अच्छा भी लगता है। उन्हे सम्मान के साथ मंजूर है म्यूज (Muse) बने रहना।
वैसे तो कुछ गलत नहीं है, किसी अच्छे व्यक्ति के लिए प्रेरणा बनना, म्यूज बनना, मगर इस शब्द का अपना एक इतिहास है, इतिहास थोड़ा भुला दिया गया है इसलिए बोझ थोड़ा कम है।
अरब देशों की बात करे तो इस्लाम ने कोई छोटा-मोटा बहाना ही नही ढूंढा। सीधा अल्लाह के हुकुम के नाम पर, एक आसमान से उतरी हुई किताब की आयतों के नाम पर, धर्म संदेश के नाम पर औरतों को अप्रत्यक्ष-अदृश्य तौर पर बंधक बना लिया है। ’वजह’ तो बेशक ही बनाया है मगर अलग तरह से। और एक तरह से देखे तो ग़लत ही हुआ है कि इस्लाम में औरत को किसी पुरुष की प्रेरणा के लिए, प्रोत्साहन के लिए काल्पनिक 'वजह' बनना नसीब नही हुआ। सोच कर देखिए कि उस समाज के पुरूषों का अहंकार, पुरुष होने का घमंड कितना गहरा होगा।
शायद इसी अहंकार की वजह से इस्लाम ने गीत-संगीत, चित्रकला, मूर्ति कला आदि पर पाबंदी लगा रखी है। औरतों को चेहरा भी तो ढंक कर रखने की हिदायत देते है। कारण यही होगा कि औरत का हुस्न भी किसी पुरुष के लिए कोई 'वजह' न बन जाए।
मगर इस्लाम ने ही पुरुषों को एक से अधिक विवाह करने की अनुमति भी दे रखी है कि वो उनके मन मुताबिक और स्थति अनुसार जितनी औरतों का ख्याल रख सके, उनका भरण-पोषण कर सके उतने मर्जी निकाह कर ले। औरत को सीधे ही पुरुष के शारीरिक सुख के लालच को पूरा करने के लिए प्रत्यक्ष ‘वजह’ बना दिया गया है। औरत सिर्फ पुरुष के सुख की 'वजह' है। औरत का सुख यहां शायद मायने नहीं रखता। यहां तक कि कितनी ही औरतों की योनि का वो हिस्सा जो कि संभोग के समय उसे थोड़े सुख का अनुभव करा सके उसे भी काट कर शरीर से अलग कर दिया जाता है। FGM - Female genital mutilation के बारे में शायद आपने सुना हो। खैर।
और इस तरह के ना जाने कितने ही प्रतिबंध, बंधन, आदि-इत्यादि धर्म संदेश के नाम पर थोप कर औरतों को एक अप्रत्यक्ष बंधक का जीवन जीने के लिए कहा गया है। और हर उस बात को जो कि औरत को एक ' कर्ता ' बनने से रोक सके वो इस्लाम ने औरत के वजूद के साथ चिपका दी है।
इस्लाम में 'कर्ता' प्रत्यक्ष तौर पर सिर्फ पुरुष ही है। औरतों को 'कर्ता' बनाने वाली एक भी आयत उस किताब में शायद नसीब नही हुई।
[हो सकता है कि इन शब्दों को लिखते समय इस्लाम के बारे में मेरी जानकारी में कुछ कमी रह गई हो। तो इसके लिए मैं क्षमा चाहूंगा। मगर इस्लाम के नाम पर जो हो रहा है उस हकीकत से सभी वाक़िफ है। तो कमी वास्तव में कहा पर रह गई ये बात जरा सोचने की जरूरत है। लेखक के तौर पर मुझे भी और पाठक या आलोचक के तौर पर आपको भी]
आगे,
इस तरह पूरे विश्व में ना जाने कितने ही धर्म, किताबे, या कितनी ही कहावते, कितने ही शब्द, कितनी ही देवियां होगी जो कि औरतों को एक ख़याली, एक काल्पनिक सम्मान के नाम पर मात्र एक 'कारण', एक ‘वजह’ बने रहने के लिए प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती होगी और कही-कही पर तो शायद प्रोत्साहित भी करती होगी। कि बस तुम एक 'कारण' मात्र बन कर रह जाओ, 'कर्ता' मत बनो।
और शायद यही वो एक अनकही, अप्रत्यक्ष वजह है जो कि पुरुषों को हक देती है, 'कर्ता' बने रहने के नाम पर, अधिकार देती है उन्हें, कि जो भी ठीक लगे वो करो।
अब उस सवाल पर थोड़ा आगे बढ़ते है - समाजिक कट्टरता :
मेरे विचार से कट्टरता का बीज इन्ही प्रकार की सामाजिक विचारधाराओं से प्रभावित होकर पुरुषों के मस्तिष्क में पनपता है। चाहे वो पुरुष किसी भी समाज से ताल्लुक रखता हो। जिस प्रकार किसी भी जैविक बीज को अंकुरित होने के लिए अनुकूल वातावरण की आवश्यकता होती है उसी प्रकार किसी भी तरह की विचारधारा के विकास के लिए भी तो उसे उसके अनुकूल समाज की, सामाजिक मान्यताओं की, सामाजिक वातावरण की आवश्यकता पड़ती है। चाहे वो विचारधारा कैसी भी हो, अच्छी या बुरी। और कट्टरता जो है वो भी एक विचारधारा ही तो है। कट्टरता किसी घटना की तरह नहीं है, आमतौर पर तो लोग कट्टरता को किसी घटना से ही जोड़ कर देखते है, मगर भूल जाते है उस घटना के होने के कारण को।
यहां पर मैं ये कहना चाहूंगा कि ये शब्द, ये बात, पढ़ना तो आसान है मगर समझने के लिए मन व बुद्धि के आंतरिक विश्लेषण की, विचारों के मंथन की जरूरत पड़ेगी। औरतों को भी और पुरुषों को भी।
और इस 'कर्ता' और 'कारण' के पूरे खेल में पुरुष-प्रधान समाज ये भूल गया कि स्त्री और पुरूष, दोनों ही का जीवन-मरण एक जैसा है, एक सरीखी भावनाएं व इच्छायें है, एक ही तरह के एहसास है।
और सिर्फ पुरुष ही नहीं, इन काल्पनिक बातों से, धर्म संदेशों या नियमो से, या अन्य अनगिनत कारणों से स्वयं के बारे में, स्वयं के होने के बारे में भूलने में तो औरतों ने भी कोई कसर बाकी नहीं रखी। वो भूल ही गई कि वो मात्र एक 'वजह' बन कर ही तो नहीं जी सकती, वो 'कर्ता' होने का कर्म भी सफलता से निभा सकती है। स्वयं के होने का विचार सिर्फ मन ही में नही कर्म में भी रख कर जीवन जी सकती है।
हां, इजाज़त नही मिलेगी। धर्म या इतिहास के पन्नो से भी नही। धर्म और इतिहास लिखा जा चुका है, उसे बदलना अब संभव नहीं है। जो भी करना है वो अब सोच-विचार कर, स्व को समझ कर ही नया करना पड़ेगा। ये तलाश स्वयं ही करनी होगी। और हीरे की भांति जीवन के अर्थ को उजागर करने के लिए पत्थर जैसे कठोर बंधनों को स्वयं ही तोड़ना होगा, पहले से चिपकी हुई आसपास की धूल - मिट्टी को तराश कर हटाना होगा। 'कारण' से 'कर्ता' बनने का सफर स्वयं ही तय करना होगा।
हर स्त्री को वैचारिक रूप से कारण और कर्ता को एक करना होगा। पहले मन, विचार, बुद्धि और भावनाओ में और फिर कर्म से।
और इन्हीं सब उलझी-सुलझी बातों में शायद उस सवाल का उत्तर छिपा हुआ है कि - पुरुष के लिए सिर्फ एक ' कारण ' बन कर, सिर्फ एक ' वजह ' बन कर जब तक पूरे विश्व में, जहां भी, औरतों को ये जीवन मंजूर रहेगा तब तक उन पुरुषों को कट्टर होने की एक वजह मिलती रहेगी। पुरुष एक 'कर्ता' होने की कीमत औरतों से यूं ही वसूल करता रहेगा।
लिखी हुई किसी भी बात से आपके मन को ठेस पहुंची हो तो क्षमा चाहूंगा।
धन्यवाद
गिरीश जैन



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